गुरु द्वारा प्राप्त मंत्र की तेजस्विता

आजकल मंत्र दो प्रकार से एक दूसरे को दिए जाते है।

प्रथम गुरु द्वारा शिष्य को विधि विधान पूर्वक देना ।
द्वितीय प्रचार प्रसार लोक कल्याण के उद्देश्य से परस्पर हस्तांतरित करना ।

हालांकि आज कल कलियुग में दिखावे और व्यापारीकरण जैसे भी कारण है जिनमें कुछ मूल कुछ मनगढ़ंत प्रचलित हैं किंतु यहां यह हमारा विषय नहीं है।

द्वितीय प्रकार से प्राप्त मंत्र स्वयं में तेजस्वी होते हैं साधना करने से परिणाम अवश्य देते हैं और दुनियाभर के प्रचारित नकारात्मक प्रपंचों के इतर उत्तम परिणाम देते हैं।

किन्तु सिद्ध गुरु द्वारा दिए हुए मंत्र के प्रभाव को वस्तुतः लिख कर व्यक्त किया ही नहीं जा सकता है।

गुरु का अर्थ वो नहीं जिसने उस मंत्र को कई लाख जप करके सिद्ध कर लिया हो

नहीं जिस स्तर की मैं बात कर रहा हूँ वो गुरुत्व का वह स्तर है जब शक्ति हर पल प्रति पल साधक के लिए प्रत्यक्ष होती हैं ,समक्ष होती है।

ऐसे गुरु का एक सबसे विशेष भौतिक लक्षण उसका मौन और एकांकी पन युक्त साधनात्मक जीवन होता है।

वो मंत्र बेंचता नहीं है उसको 25- 50 हजार का लालच देकर मंत्र नहीं क्रय कर सकते…

खोजो भी मत आप उसे बस अपनी प्राण ऊर्जा को क्रमिक दीप्त करते जाओ

महादेव की इच्छा से दोनों स्वयं मिलेंगे परस्पर

विकार हीन (न सुख न दुख) अश्रु प्रवाह ही हो सकता है उस क्षण पुनर्मिलन का

विचारणीय यह है की आप जिसे पाना चाहेंगे विशेषतया यदि वो आध्यात्म जगत से सम्बद्ध हो तो वो स्वतः खिंचा चला आ जाता है।

और प्रायः भौतिक जगत इसका उलट व्यवहार करता है।

जिस प्रकार धूप में खड़े होने पर सूर्य देव और हमारे न चाहने पर भी हमे ताप मिलता ही है,

ठीक वैसे ही गुरु के सानिध्य में भी शक्ति/चेतना प्रवाह स्वतः ही अनवरत होता रहता है

बशर्ते हम संशय , प्रमाद, आलस्य आदि दुर्गुणों के मेघों से आत्म आच्छादित नहीं हों…

ॐ नमः शिवाय ।
ॐ श्री गुरुवे नमः

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