जय निखिल
विश्वास वो चीज है जो इष्ट तथा गुरु पर पूर्णतया होना चाहिए। और मनुष्यों पर कम ही करना चाहिए।
लोग धन का संग्रह करते करते सद्गति या दुर्गति की अंत गति प्राप्त कर लेते है। परंतु अंत समय धन को आत्मा कहीं लेकर नहीं जा पाती । ना स्वर्ग में ना नर्क में ना अगले पुनर्जन्म में। उस धन का भोग करने के लिए कोई पूर्वजन्म का ऋणी उसे उतनी ही निर्ममता से खर्च करता है जितनी ममता से जातक ने संग्रह किया था।
अब प्रश्न यह उठता है कि फिर आत्मा लेकर क्या जाएगी। आत्मा अच्छे बुरे कर्म फल तथा आध्यात्मिक साधनात्मक कर्म व आत्मिक सम्बन्ध के साथ संयुग्मित रहता है।
इसलिए साधना कर्म नियमित और जितना ज्यादा होगा उतना ही लाभ है क्यूँ की मात्र यही कर्म आपके साथ स्थानांतरित होगा।
परंतु ज्यादातर लोग साधना कर्म का संचय सिर्फ शरीर से ही किए जा रहे है। ये जब तक प्राणों से प्रायोगिक रूप से संयुग्मित न कर लिया जाए तब तक व्यर्थ है।
शरीर से संचय अर्थात लिख कर या किताबों के रूप में संचय कर रहे हैं।
एक दिन मरणोपरांत घर वाले सारे कलेक्शन कबाड़ी को बेच देंगे 100-200 रुपये के बदले।
कबाड़ी उसे पकौड़ी वाले को दे देगा और फिर एक एक साधना के ऊपर लोग पकौड़ियाँ खा खाकर उसे सड़क पर फेंकते जाएंगे।
कोई 1000 में 1 व्यक्ति जिसके पूर्व जन्म की साधनात्मक पृष्ठभूमि रहा होगा मात्र वो ही पकौड़ी खाकर उस साधना को पढ़ेगा । और कुछ दिशा पा सकेगा , बस।
दूसरी बात संग्रह के अलावा दूसरा सबसे बड़ा दोष अविश्वास का है। साधक के अंतर मन में बहुत गहरे , भौतिकता के कारण साधनाओ के लिए अविश्वास होता है। वो सामने से खुद से भी अनजान झूठ बोलता है कि साधना पर उसे पूरा विश्वास है । परंतु आसन पर बैठते ही भौतिकता का असुर अपना कमाल दिखाता है और उसे बताता है कि किस्से कहानियां कभी सच नहीं होते।
अविश्वास की दूसरी चोट मन्त्र पर पड़ती है। जब तक मन्त्र में कुछ विशेष “हुम् फट्” “मारय मारय”, “रक्त चूसय ” आदि न आये उसे वो प्रभावी नहीं लगता। बार बार गुरु वचनों पर संदेह करने से और क्या परिणाम निकल सकता है।
पौरुषवान कर्मठ अपना मार्ग स्वयं बना लेते हैं। जबकि अकर्मण्य को यदि सिद्धि प्रणय सय्या पर भी सजा कर दे दिया जाए तो वो अपने हीन आत्म विश्वास के कारण उससे भी तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाएगा।